Tuesday, June 10, 2014

वो बहनें, जो अब नहीं रहीं




जो न जानती थीं, हत्या व बलात्कार का मतलब
जिन्होंने न देखे थे पुलिस और थाने
जो पढ़ती थीं स्कूल में और छीलती थीं लहसुन खेत में
आज वो पोस्टमार्टम और फॉरेंसिक जाँच का विषय बन गयी  हैं

वो टहनियाँ जिनसे टपकती थीं पकी-पकी आमियां
झूलती थीं जिन पर वो तीजो के झूले डालकर
वो चुन्नियाँ जो लहराती थीं उनके गले में
आज वो फाँसी की रस्सियाँ बन गयीं हैं

वो अंगूठियां और कड़े जो पहनती थीं हाथ में
वो किताबे और कापियां जिनमे थे कहानी और किस्से
वो खूटियां टंगे है जिन पर उनके नये-नये कपड़े
आज वो जीता जागता इतिहास बन गये  हैं

वो गलियाँ, वो कुएं जहाँ  होती थीं सहेलियों से बातें
वो रास्ते , वो छते जहाँ से देखतीं थीं वो बारातें
वो घर, वो आँगन जहाँ गूंजती थीं उनकी आवाजें
आज वो पुलिस और नेताओं के पर्यटन बन गये हैं

वो वहशी, वो दरिंदे जिन्हे मिली थीं इंसानी जिंदगियां
जिनके लिए अब जीवन का सबब है जेले और काल कोठरियाँ
मगर जिनकी फिक्रमंद है ये राजनीति और सियासत
वो इंसानियत को रौंदकर फांसी के असली हक़दार बन गये हैं