लेकिन आज ज़िन्दगी सिकुड़कर इतनी छोटी हो गयी है कि लगता है जैसे किसी पिंजड़े में बंद हो. अब हर शाम दिन के लम्हो का गुणा भाग करने में और अगले दिन शायद कुछ बेहतर हो पाने की उम्मीद के साथ आती है तथा हर सुबह जीवन की जटिलता का नया रूप लेकर आती है. इस तरह जीना एक आदत बन गया है .लगने लगा है कि ज़िन्दगी एक मुश्किल भरी काली रात के सफ़र में है.दुनिया की इस भीड़ में जहाँ एक को दूसरे का हाल तक जानने कि फुर्सत नहीं है, मै कंही खो गयी हूँ और मुझे अपना ही चेहरा अजनबी नज़र आने लगा है.कभी सोचा नहीं था कि इंसानों के,रिश्ते नातो से भरे इस जंगल से जी ऐसा ऊब जायेगा कि कंही दूर बहुत दूर किसी एकांत में जाकर रहने का मन करेगा. ऐसे एकांत में जिसका विस्तार इतना हो कि जहाँ अतीत से मुझे कोई आवाज न आये, जहाँ मुझे किसी क़ी याद न आए और लब भी सी लूँ ताकि मुंह से उफ़ न आए .
खुशियों क़ी मंजिल ढूढने के लिए संघर्ष क़ी राह पर घर से निकली मगर रात के अँधेरे में रास्ते क़ी खाई को देख न पाई और ओंधे मुंह उसमे गिर पड़ी. बहुत कोशिश के बाद उस खाई से जब बाहर निकली और फिर से सफ़र शुरू किया तो न जाने कब और कैसे रास्ते मुड़ते चले गए और एक ऐसी जगह पहुंचा दिया, जहाँ आने वाले कल से भी कोई उम्मीद नहीं बची.
लेकिन ज़िन्दगी इस अँधेरे क़ी चादर को चीरकर बाहर उजाले में आना चाहती है.उस पिंजड़े को जिसने ज़िन्दगी के दायरे को सिकोड़ दिया है ,को तोड़कर बाहर आना चाहती है और आजाद पंछी क़ी तरह नीले गगन में फिर से गाना चाहती है. मन चाहता है कि इस अँधेरे को चीरता हुआ सफ़ेद फूलो का बगीचा हो जिसमे जुगनू टिमटिमा रहे हो, गगन में चाँद बादलों से आंख मिचोली खेल रहा हो और युगों क़ी लम्बी यात्रा कर मेरी आँखों में लौटी नींद हो.