Friday, June 10, 2011

ज़िन्दगी.......



जीवन का क्रम हमेशा चलता रहता है चाहे परिस्थितियां अनुकूल हो या प्रतिकूल हो . कभी तो एक लक्ष्य की दिशा में बिलकुल शांत, बिना बाधाओं के चलता रहता है और कभी इतना विषम हो जाता है की अपनी सारी शक्ति से संघर्ष करने पर भी, विषमताओं में उलझकर रह जाता है, लकिन फिर भी चलता रहता है. जीवन की विषम परिस्थियों का संघर्ष इंसान को मानसिक तौर पर कठोर तो बना देता है लकिन खुद को कठोर बनाने के संघर्ष में जो पीड़ा होती है वह अकथनीय है. हर चीज़ का केंद्र हमारा दिमाग ही नहीं बल्कि दिल भी होता है और इसीलिए मानसिक रूप से कठोर होने पर भी एक इंसान इंसानी भावनाओ से मरहूम नहीं हो सकता है.हालाकि प्रत्येक कठोर अनुभव चरित्र के किसी न किसी अंग की पुष्टि तो करता है लकिन कुछ अनुभव इतने कटु होते है की वो चरित्र के अंग की पुष्टि करने के बजाये आपको एक ऐसी जगह पर ले जाकर खड़ा कर देते है कि या तो आप ज़िन्दगी कि सच्चाई झुठलाकर जिंदा रहे या फिर इंसानी भावनाओ को मारकर जिंदा रहे. लेकिन ज़िन्दगी कि कुछ सच्चाइयां ऐसी होती है जिनको कितना भी झुठलाने कि कोशिश करें लेकिन झुठलाया ही नहीं जा सकता है क्योकि सच्चाई को तो समुन्दर में भी नहीं डूबोया जा सकता है .इसीलिए आपको ज़िन्दगी के कड़वे अनुभवों से सीख कर ,ज़िन्दगी कि वास्तविकताओं को स्वीकार कर मानसिक तौर पर कठोर हो कर ज़िन्दगी के विषम संग्राम को स्वीकार करना ही चाहिए.मैंने जो अपनी ज़िन्दगी के कड़वे अनुभवों से सीखा वो ये है कि असल चीज़ ज़िन्दगी नहीं हिम्मत, सब्र और प्यार कि शक्ति होती है जो इंसान को किसी भी परिस्थिति में जीने कि कला सीखा देते है . ज़िन्दगी तो मौत कि मुज़रिम है जो कभी भी गिरफ्तार हो सकती है और मौत से जयादा सच्ची हकीकत दुनिया में दूसरी नहीं है . जो जीवन का सुख भोगता है उसे एक न एक दिन जाना भी पड़ता है और मनुष्य कि इच्छाओं कि तो कोई सीमा ही नहीं है. हम जिन लोगो को दुनिया में सबसे अधिक प्रेम करते है उन्हें हमेशा अपने साथ देखना चाहते है ,लेकिन ऐसा होना संभव ही नहीं है . जो संसार में आया है उसे जाना भी पड़ता है.

ज़िन्दगी के ये कड़वे अनुभव ही हमें ये सोचने पर मजबूर कर देते है कि ज़िन्दगी आखिर है क्या? प्राण धारण कर बस किसी भी तरह जिंदा रहने कि जद्दोज़हद में जुट जाना और एक दिन उस जद्दोज़हद को छोड़कर प्राण त्याग देने को ही क्या ज़िन्दगी कहा जा सकता है? या ऊँची नीची राहों से चलकर एक ठीक से मुकाम तक पहुँच जाना ही ज़िन्दगी है? या फिर अनजानी गलियों से गुजरने का दर्द भरा सैलाब जिस अनचीहे और अनचाहे मुकाम तक ले जाता है ,वही ज़िन्दगी है. अगर ये नहीं है तो फिर आखिर क्या है ज़िन्दगी?

ज़िन्दगी कि विषम परिस्थितियों से ऊपर उठकर ,अपने आप को समाज कि तरक्की के संघर्ष के लिए समर्पित कर देना ही ज़िन्दगी है .ज़िन्दगी कि ये जो परिभाषा मैंने अपने दादाजी कि ज़िन्दगी से सीखी मुझे लगता है कि उसके अलावा ज़िन्दगी और कुछ हो ही नहीं सकती है जो ज़िन्दगी के आखिरी समय तक ये कहते रहे ''मैंने अपने जीवन क़ी हर सुबह को शाम होने के इंतजार में और हर शाम को सुबह होने के इंतजार में व्यर्थ नहीं गंवाया है .मै मनुष्य के जीवन को प्यार करता था और उसी के सोंदर्य के लिए ही मै संग्राम करने निकल पड़ा था . मै मनुष्य कि ख़ुशी के लिए जिया और उसी ख़ुशी को साथ ले कर जा रहा हूँ.

3 comments:

  1. Very inspiring......i m touched........

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  2. apka lekh behad inspiring hai,samay ke khurdure hath jb jeevan ko choote hain,tb shayad ek doosri atma ka janam hota hai,jo janamte hue roti nahi balki shant evm vicharmagn hoti hai.

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  3. Deep Emotion, loving, Beautiful and true meaning of life. Too difficult to bring out of mind.

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